शुरुआत करो



आशाओं के दीप जला लो

फिर फैला दो आज उजाला

बेमन से जीवन में भर लो

तुम फिर से नवरस का प्याला

फिर से महका दो बगिया को

डाल-डाल पर पुष्प सजाकर

हर घर को रौशन कर दो तुम

द्वार-द्वार आंगन में जाकर

जीवन करवट रोज बदलती

सुख-दुख आते-जाते हैं

रोज चुनौती नई-नई दे

नई सिख सिखलाते है

जो सुख-दुख में नहीं बदलता

निश्चल अड़ींग सदा रहता है

उदय अस्त में एक सा रहता

जग का तिमिर वही हरता है।


हरि ओम शर्मा

पुकार

परिपथ प्राण का विश्रृंंखलित हुआ ऐसे,
वसाविहीन दीप बवंडरों में जलता हो जैसे,

विज्ञान बुद्धि विस्मित है यह सोच कर,
आस्था के पोषण से तन-मन  जीवित रहा कैसे?

प्रश्न है यह कि, साधना प्रगाढ़ कितनी थी?
कर्म में उतरी रुचि गहरी, गति अबाध कितनी थी?

विश्वास के पंख पर बैठ आसमान छु आया,
बचा कर मौत के परिणाम से वशुंधरा पे ले आया.

~ रुद्र प्रताप मिश्रा


पुकार

*मनुजता विकल है, लुटी जा रही है* 

मनुजता विकल है, लुटी जा रही है
पतन की कहानी, यहीं रोक दो मां
किसे हम पुकारे, किसे हम निहारे
हमारे लिए बस तुम्हीं एक हो मां.....🙏🙏

 तुम्हीं से मिली जिंदगी इस मनुज को
भटकते ना जाने कहां घुमते थे
अभी आ पड़ा है, जीवन पर मरण तो
रोते बिलखते तुम्हें ढुंढते हैं
जीवनदायिनी मां! इन्हें अब उबारो
इन्हें प्राण का उपहार दो मां.....🙏🙏

 जीवन-मरण में, लुटे जा रहे हैं
पतन की कहानी यहीं रोक दो मां.....🙏🙏

 जिन्हें धन मिला, वो फंसे थे अहम् में
सता दुसरों को स्वयं थे व्यसन में
स्वयं उनकी करनी अब परिणाम देती
अहंकार पर चोट कर प्रतिशोध लेती
पतित-पावनी तुम, इन्हें अब उबारो,
इन्हें प्रेरणा की नई ज्योत दो मां..🙏🙏

मनुजता विकल है, लुटी जा रही है
पतन की कहानी, यहीं रोक दो मां..🙏🙏

 *
- रुद्र प्रताप मिश्रा

पुकार

जब उलट-पलट का नर्तन-गर्जन
सृष्टि पर आ गहराता है
तब कातर कंठ करुण नयनों से
भगवान पुकारा जाता है।

उमड़-घुमड़ घन नाद करें जब
मृत्यु नाश की लहर चले
धीरज के दीपक दीपित कर
पतवार चलाया जाता है

वर विज्ञान के निष्फल हो जब
मृत्यु दल-दल में जगती सारी
तब पुण्य-पुरुष को अर्पित कर तन
प्राण प्रकटाया जाता है।

है क्षुब्ध जीवन की प्यास लगी
इस धरती की जठराग्नि जगी
तब अनंत राज के महाजल कण से
यह आग बुझाया जाता है।

~ रुद्र प्रताप मिश्रा

पुकार

भय से जलती सांस, हरे!
ऊपर से जग उपहास करे
यह पलक न पुलकित होती है
दिन रात तुम्हीं को रोती है
किस विधि बचेगी लाज, हरे!

निष्ठुर यह जग की रीति, हरे!
पग-पग छल की नीति, हरे!
अब ठिठुर बैठ धड़कन गिनता
कब पुरी हो तेरी राह, हरे!
भय से जलती सांस, हरे!

मिले न कोई सेतु हरे!
मिलन मगन के हेतु, हरे!
धुप में जलता देह अहर्निष
कहां है तेरी छाह, हरे!
भय से जलती सांस, हरे!

कह दो इतनी बात, हरे!
कब ढलेगी आधी रात, हरे!
बस अब तो जान निकलती है
कब फिरेगा सिर पर हाथ, हरे!
भय से जलती सांस, हरे!

 रुद्र प्रताप मिश्रा