परिपथ प्राण का विश्रृंंखलित हुआ ऐसे,
वसाविहीन दीप बवंडरों में जलता हो जैसे,
विज्ञान बुद्धि विस्मित है यह सोच कर,
आस्था के पोषण से तन-मन जीवित रहा कैसे?
प्रश्न है यह कि, साधना प्रगाढ़ कितनी थी?
कर्म में उतरी रुचि गहरी, गति अबाध कितनी थी?
विश्वास के पंख पर बैठ आसमान छु आया,
बचा कर मौत के परिणाम से वशुंधरा पे ले आया.
~ रुद्र प्रताप मिश्रा
No comments:
Post a Comment
Note: only a member of this blog may post a comment.