भय से जलती सांस, हरे!
ऊपर से जग उपहास करे
यह पलक न पुलकित होती है
दिन रात तुम्हीं को रोती है
किस विधि बचेगी लाज, हरे!
निष्ठुर यह जग की रीति, हरे!
पग-पग छल की नीति, हरे!
अब ठिठुर बैठ धड़कन गिनता
कब पुरी हो तेरी राह, हरे!
भय से जलती सांस, हरे!
मिले न कोई सेतु हरे!
मिलन मगन के हेतु, हरे!
धुप में जलता देह अहर्निष
कहां है तेरी छाह, हरे!
भय से जलती सांस, हरे!
कह दो इतनी बात, हरे!
कब ढलेगी आधी रात, हरे!
बस अब तो जान निकलती है
कब फिरेगा सिर पर हाथ, हरे!
भय से जलती सांस, हरे!
रुद्र प्रताप मिश्रा
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