फटे- चिथड़े, रोता बच्चा,
तेज़ धूप, पर क्या चारा.
इंतजार करने वाला है,
झुठे वादों का मारा.
कोई देता बस का झांसा,
कोई देता रोटी का,
टोपी वाले बैठे-बैठे
सौदा करते बोटी का.
सड़कों पर सैलाब उमड़ता,
नित दिन मरने वालों का.
"उचित प्रबंधन"? धोखा है जी
भाषण करने वालों का.
मेरे मजदूरों! तुम सुन लो,
अब मत तुम बाहर जाना.
'मनरेगा' में ही लग जाना,
पर फिर से मत फुसलाना.
*(यह पंक्ति विशेष कर बिहार के लिए क्योंकि चुनाव आने ही वाले हैं...
ओ बिहार वालों! सुन लो,
अब तुम बस इतना कर देना.
नहीं भला यदि हुआ तुम्हारा,
तुम भी भाला कर देना.)
'दुध'? 'नहीं' पर 'दारू'? 'ले लो'
नियम बड़ा अनोखा है.
बुद्धिदेव ने वित्त मंत्री
साथ किया कोई धोखा है.
इन सरकारी अस्पताल की
बात निराली होती है.
काम नहीं होता कुछ भी,
पर खुब बहाली होती है.
बैठे-बैठे आलावाले,
जांच विधी सब भुल गए.
इनके चक्कर में न जाने
कितने ऊपर झुल गए.
और एक सरकारी सेवक
हैं अपने डंडे वाले.
पूर्ण विधि से खुब किया,
अब और नहीं करने वाले.
जनता ने सोचा कि अपने
खाकी वाले हीरो हैं.
पर कुपात्र नेता के आगे,
सब बन बैठे जीरो हैं.
ऊपर से आदेश नहीं है,
तो क्यों अपना काम करें.
सारे संकट टल ही गए हैं,
अब केवल विश्राम करें.
एक और बच गए, हमारे
कुछ कुपात्र राशन वाले.
विपदा आन पड़ी है, फिर भी
नहीं बदलने हैं वाले
हर तौले में किलो भर का
राशन चोरी कर जाते.
अपनी स्वार्थ पूर्ति करने को
विपदा से भी लड़ जाते.
हे सुयोग्य संकट-विस्तारक
मेरी इतनी अर्जी है,
विपदा तो सब पर आई है,
फिर क्यों ये खुदगर्जी है?
कुछ नायक अब भी है, जो
विपदा में सबके साथ अड़े हैं.
उन्हें नमन, वो इतने पर भी,
हमलोगों के साथ खड़े हैं.
- हरि ओम शर्मा
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